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शोषण की छाया में मासूम सपने: पुलिसकर्मियों पर बंधुआ मजदूरी का आरोप, दो आदिवासी बच्चियां छह माह तक रहीं कैद में

बिलासपुर के तिफरा पुलिस कॉलोनी की शांत दीवारों के भीतर छह महीने तक घुटती रहीं दो मासूम चीखें। जशपुर जिले की 13 और 16 वर्षीय दो आदिवासी बच्चियां, जो बेहतर भविष्य और पढ़ाई की उम्मीद में यहां लाई गई थीं, उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया गया — और यह सब हुआ पुलिसकर्मियों के संरक्षण में।

घटना केवल एक कानूनी उल्लंघन नहीं, बल्कि हमारे तंत्र की आत्मा को झकझोर देने वाली है। जिस पुलिस विभाग पर जनता की सुरक्षा और बच्चों के भविष्य को संरक्षित करने की जिम्मेदारी है, उसी विभाग के दो कर्मचारियों पर इन बच्चियों को गैरकानूनी रूप से कैद में रखने, घरेलू कार्य करवाने और प्रताड़ित करने का आरोप है।शिक्षा का 

सपना बना बंधुआ


जीवन

मूल रूप से जशपुर की रहने वाली ये बच्चियां, परिवार के कथित रिश्तेदारों के साथ बिलासपुर लाई गईं। अभिभावकों को भरोसा दिया गया था कि यहां उन्हें पढ़ाई का बेहतर मौका मिलेगा। लेकिन जैसे ही वे तिफरा पुलिस कॉलोनी पहुंचीं, वहां उन्हें पढ़ाई की जगह झाड़ू, पोछा, बर्तन और बच्चों की देखभाल में लगा दिया गया।

बाहर की दुनिया से पूरी तरह काट दिया गया, किसी स्कूल या ट्यूशन की व्यवस्था नहीं हुई। छह महीने तक उन्हें सुबह से रात तक काम में झोंका गया और किसी से संपर्क की अनुमति नहीं दी गई। कुछ समय बाद प्रताड़ना शुरू हुई — डांट, मार, धमकी और मानसिक शोषण।

रविवार की रात: जब कैद से मिली फुर्सत

पुलिस रिपोर्ट के अनुसार, रविवार देर रात ये दोनों बच्चियां किसी तरह वहां से भाग निकलीं और बिलासपुर के तोरवा थाना क्षेत्र के लालखदान इलाके में आ पहुँचीं। वहां लोगों ने उन्हें रोते-बिलखते देखा और पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने तत्काल कार्रवाई करते हुए उन्हें ‘सखी सेंटर’ पहुँचाया, जहाँ फिलहाल वे सुरक्षित हैं।

परिजनों की चुप्पी: डर या दबाव?

मामले में चौंकाने वाला मोड़ तब आया जब दोनों बच्चियों के परिजनों ने, जिनके बयान पुलिस ने दर्ज किए हैं, यह स्वीकार किया कि उन्होंने बच्चियों को पढ़ाई के लिए भेजा था, लेकिन किसी भी प्रकार की जबरदस्ती या मारपीट से इनकार किया।

यह सवाल बड़ा है — क्या यह चुप्पी सामाजिक दबाव या आर्थिक निर्भरता का परिणाम है? या फिर आरोपी पुलिसकर्मियों की वर्दी का भय अभी भी ग्रामीण समाज में न्याय से बड़ा है?

वर्दी के भीतर कैसा इंसान?

यह मामला केवल बच्चों के साथ शोषण तक सीमित नहीं है। यह उन सभी सवालों को जन्म देता है जिनसे अक्सर तंत्र बच निकलता है:

  • पुलिस कॉलोनी में इतने लंबे समय तक किसी ने सवाल क्यों नहीं उठाया?

  • क्या इस कॉलोनी में काम करने वाले अन्य लोग, पड़ोसी, चौकीदार, किसी ने बच्चियों की हालत नहीं देखी?

  • क्या पुलिस विभाग की आंतरिक निगरानी प्रणाली इतनी कमजोर है?


न्याय प्रक्रिया शुरू, लेकिन क्या यह पर्याप्त है?

बिलासपुर पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है। दोनों बच्चियां अब बाल कल्याण समिति की निगरानी में हैं। उनका मेडिकल परीक्षण और मनोवैज्ञानिक परामर्श जारी है। सीएसपी निमितेश सिंह के अनुसार, "सभी पहलुओं की गहन जांच की जाएगी और साक्ष्यों के आधार पर आगे की कानूनी कार्रवाई की जाएगी।"

लेकिन क्या यह पर्याप्त है? क्या पुलिस अपने ही विभाग के दोषियों को बेनकाब करने में उतनी ही तत्पर होगी जितनी आम नागरिकों के मामलों में होती है?


समाप्ति में – एक करुण पुकार

इन बच्चियों की करुण कहानी हमें यह याद दिलाती है कि गरीब, आदिवासी, ग्रामीण और महिला — यदि एक ही शरीर में ये चारों पहचानें मिल जाएं, तो वह व्यक्ति इस समाज में सबसे असहाय हो जाता है।

अब न्याय केवल दो आरोपियों को निलंबित करने या एफआईआर लिखने से नहीं होगा। न्याय तब होगा, जब हम यह सुनिश्चित करेंगे कि आने वाले समय में कोई और बच्ची इस तरह का नरक न भोगे। जब हम पुलिस विभाग में, स्कूलों में, और समाज में ऐसी संवेदनशीलता लाएँगे जो केवल अपराध के बाद नहीं, अपराध से पहले जाग जाए।