डिंडोरी। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ जब सत्ता की दहलीज़ पर रुक जाए, तो सवाल उठते हैं — क्या यह लोकतंत्र है या अफसरशाही का मुखौटा? डिंडोरी की कलेक्टर नेहा मारव्या सिंह ने एक ऐसा आदेश जारी किया है जो न सिर्फ चौंकाने वाला है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाता प्रतीत होता है। अब पत्रकार बिना अनुमति कलेक्ट्रेट परिसर में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। ये आदेश सीधे तौर पर प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश है — और इसका विरोध अब सिर्फ डिंडोरी तक सीमित नहीं रहा।
किसी भी ज़िले में मीडिया का स्वतंत्र आवागमन प्रशासनिक पारदर्शिता का प्रतीक होता है, लेकिन कलेक्टर नेहा मारव्या के आदेश ने इसे "विशेष अनुमति" की कैद में डाल दिया है। पत्रकारों का आक्रोश स्वाभाविक है, लेकिन सवाल ये है कि क्या यह वही अफसर हैं जो कभी सिस्टम से लड़ने वाली, "ईमानदार" अफसर के रूप में जानी जाती थीं?
क्या ईमानदारी अब असहिष्णुता बन चुकी है?
2011 बैच की IAS नेहा मारव्या सिंह की अब तक की कहानी संघर्ष की रही है — लेकिन डिंडोरी में उनकी नियुक्ति के छह महीने के भीतर उन्होंने जो प्रशासनिक तेवर दिखाए हैं, वे भय पैदा करने वाले हैं। उनका ताजा आदेश भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 163 का हवाला देकर पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगाता है। क्या यह क़ानून व्यवस्था का हिस्सा है या प्रेस-मुक्ति पर अफसरशाही का हमला?
पत्रकारों का कहना है — “यह आदेश तुगलकी फरमान है। कोई भी अफसर यह तय नहीं कर सकता कि जनता की आवाज़ कब और कैसे उठे।” सोशल मीडिया पर विरोध की बाढ़ है, लेकिन कलेक्टर महोदया संवाद नहीं, शर्तों की भाषा में बात कर रही हैं।
कलेक्टर की ‘संशोधित तानाशाही’ — छवि बचाने की कोशिश या प्रेस का मुँह बंद करने की नई चाल?
1 जुलाई को कलेक्टर ने एक संशोधित आदेश जारी किया, जिसमें "विशेष परिस्थिति" में पत्रकारों को प्रवेश की अनुमति देने की बात कही गई। साथ ही पत्रकारों को बैठक के लिए बुलाया गया — लेकिन पत्रकारों ने इसे “प्रेस को नियंत्रित करने की साजिश” कहकर ठुकरा दिया।
प्रशासनिक तंत्र पर यह सवाल उठता है — क्या अब अफसरों को आलोचना से डर लगने लगा है? क्या अब गोपनीयता के नाम पर ज़िम्मेदारी से भागा जा रहा है?
भरोसा टूट रहा है — जनता भी सवाल कर रही है
डिंडोरी के पत्रकार ही नहीं, आम नागरिक भी पूछ रहे हैं — क्या अब सरकारी दफ्तरों में पारदर्शिता का कोई स्थान नहीं बचा? क्या एक महिला अफसर की व्यक्तिगत पीड़ा अब तानाशाही का आवरण बन चुकी है? जिन्होंने कभी सरकार से न्याय की मांग की थी, अब वही लोगों की आवाज़ को दबाने का प्रयास कर रही हैं।
नेहा मारव्या सिंह का आदेश न सिर्फ लोकतांत्रिक परंपराओं के खिलाफ है, बल्कि यह उनकी वही ‘छवि’ तोड़ता है जिसकी वजह से उन्हें कभी जनता की हमदर्द समझा गया था।
प्रशासनिक व्यवस्था में दरार या अफसरशाही की नई परिभाषा?
इस पूरे घटनाक्रम ने यह स्पष्ट कर दिया है कि डिंडोरी में सत्ता अब संवाद से नहीं, आदेशों से चल रही है। जब सवाल पूछने वालों के लिए दरवाज़े बंद कर दिए जाएं, तो जवाब देने की ईमानदारी भी संदिग्ध हो जाती है।
नेहा मारव्या सिंह के आदेश से एक बात तो साफ है — डिंडोरी में लोकतंत्र की नींव पर अफसरशाही की दीवारें ऊंची होने लगी हैं। लेकिन यह दीवारें कितनी टिकेंगी, इसका जवाब शायद वही पत्रकार देंगे जिन्हें आज इस व्यवस्था से बाहर रखा जा रहा है।