अहमदा
बाद। शहर की भीड़, रफ्तार और चकाचौंध के बीच बावला कस्बे की एक पुरानी गली में अब एक मकान ऐसा है जहाँ जिंदगी की कोई आहट नहीं, सिर्फ सन्नाटा है। इस गली के किराए के मकान में रहने वाले एक गरीब परिवार के पांच सदस्य अब इस दुनिया में नहीं हैं। पति-पत्नी और उनके तीन मासूम बच्चों ने ज़हर खाकर सामूहिक रूप से आत्महत्या कर ली।
घटना अहमदाबाद ग्रामीण क्षेत्र के बावला की है। मरने वालों में 34 वर्षीय विपुल वाघेला, उसकी 26 वर्षीय पत्नी सोनल, 11 साल की बेटी, 8 साल का बेटा, और 5 साल की छोटी बेटी शामिल हैं। पूरा परिवार मूल रूप से ढोलका से ताल्लुक रखता था और बावला में हाल ही में किराए के मकान में शिफ्ट हुआ था।
मौत का कमरा: जहाँ जीवन घुट कर मर गया
सुबह जब दरवाजा नहीं खुला और मकान से किसी भी तरह की आवाज़ नहीं आ रही थी, तो पड़ोसियों को अनहोनी की आशंका हुई। सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुँची और दरवाजा तोड़ा गया। अंदर जो दृश्य था, वह किसी भयानक दुःस्वप्न से कम नहीं।
कमरे के एक कोने में पांचों शव पड़े थे — एक साथ, बिना हरकत, बिना शोर। उनके पास कुछ घरेलू सामान, बर्तन, और एक पानी की बोतल में अज्ञात रसायन बरामद हुआ। फॉरेंसिक टीम ने पुष्टि की कि जहरीले तरल पदार्थ के सेवन के संकेत हैं। शवों को पोस्टमॉर्टम के लिए भेजा गया है और विषैले पदार्थ की प्रकृति की जांच जारी है।
न सुसाइड नोट, न कोई अंतिम संदेश
अब तक की पुलिस जांच में कोई सुसाइड नोट बरामद नहीं हुआ है। कोई स्पष्ट कारण सामने नहीं आया है। यह चुप्पी उतनी ही डरावनी है जितनी मौतें। ऐसा लगता है जैसे इस परिवार ने मरने से पहले भी दुनिया से कुछ नहीं कहा — जैसे जीते-जी भी उनकी कोई आवाज़ नहीं थी, और मरते वक्त भी उन्होंने कोई शिकायत नहीं की।
अदृश्य तकलीफें, अनकहे संकट
स्थानीय निवासियों और पड़ोसियों का कहना है कि वाघेला परिवार शांत स्वभाव का था। न किसी से झगड़ा, न किसी से दिखावटी मेलजोल। वे अक्सर घर में ही रहते थे, बच्चों की आवाज़ें कभी-कभार गलियों में सुनाई देती थीं। कोई यह नहीं सोच सकता था कि उनके भीतर ऐसा तूफान चल रहा था।
परिवार के आर्थिक हालात बहुत अच्छे नहीं थे। विपुल वाघेला दिहाड़ी मजदूरी करता था, और कोरोना के बाद से काम में अस्थिरता बनी हुई थी। यह आशंका है कि आर्थिक तंगी, सामाजिक अलगाव और मानसिक दबाव उनके इस फैसले की वजह हो सकते हैं।
तीन मासूमों की मौत: यह समाज की भी आत्महत्या है
इस घटना का सबसे पीड़ादायक पहलू यह है कि इसमें तीन नाबालिग बच्चों की जान गई। यह केवल एक पारिवारिक त्रासदी नहीं है — यह एक सामाजिक अपराध जैसा महसूस होता है।
क्या वे बच्चे सच में जानना चाहते थे कि ज़हर क्या होता है? क्या उन्हें यह बताया गया था कि यह सब खत्म करने का एकमात्र रास्ता है? सवाल कई हैं, पर जवाब देने वाला कोई नहीं बचा।
पुलिस जांच जारी, लेकिन समाज की जांच कौन करेगा?
पुलिस के अनुसार, मामला संवेदनशील है और हर संभावित कोण से जांच की जा रही है — चाहे वह घरेलू कलह हो, बेरोजगारी, कर्ज का बोझ या मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी। मकान मालिक और आसपास के लोगों से पूछताछ जारी है।
लेकिन बड़ी बात यह है — क्या केवल पुलिस की जांच काफी है? समाज की चुप्पी, राज्य की उदासीनता, और तंत्र की निष्क्रियता भी तो इस मौत के जिम्मेदार हैं। क्या कभी इनकी भी जांच होगी?
यह आत्महत्या नहीं, हमारी व्यवस्था का पर्दाफाश है
जब कोई परिवार सामूहिक आत्महत्या करता है — वह भी तीन बच्चों के साथ — तो यह केवल 'कृत्य' नहीं होता, यह एक घोषणा होती है। यह उस दर्द की, उस असहायता की, उस नज़रअंदाज़ किए गए जीवन की घोषणा होती है, जिसे किसी ने न देखा, न सुना।
इस त्रासदी में हमें दोषी नहीं दिखते — पर शायद हम सब दोषी हैं। उन बच्चों की चुप्पी को हम सुन नहीं सके। उस महिला की चिंता को हमने समझा नहीं। उस पिता की असफलता का बोझ हमने कभी साझा नहीं किया।
और अब, जब सब खत्म हो चुका है, तब हम सिर्फ रिपोर्ट लिख सकते हैं।