मध्यप्रदेश सरकार की नैतिकता एक बार फिर दांव पर है। जब सरकार के ही वकील उस तंत्र के खिलाफ खड़े हो जाएं, जिसे वे सुरक्षित रखने
के लिए नियुक्त किए गए हैं—तो समझिए लोकतंत्र की जड़ें हिल रही हैं।
उपमहाधिवक्ता स्वप्निल गांगुली द्वारा एक भ्रष्ट अधिकारी की पैरवी करना, और वह भी बिना किसी वैधानिक प्राधिकरण या वकालतनामा के—यह न सिर्फ सरकारी सेवा की गरिमा को ठेस पहुंचाता है बल्कि विधि विभाग की नियमावली का भी उल्लंघन है।
डॉ. संजय मिश्रा, जिनके खिलाफ बहुविवाह, फर्जीवाड़ा और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, उन्हें अदालत में 'उत्पीड़ित' साबित करने की कोशिश, न्याय की अवधारणा का उपहास है।
लोकायुक्त के वकील की चुप्पी इस पूरे प्रकरण को और अधिक संदेहास्पद बनाती है। न्याय व्यवस्था के अंदर से न्याय को कुचलने का यह प्रयास अगर अब भी अनदेखा किया गया, तो यह एक खतरनाक परंपरा की शुरुआत होगी—जहां भ्रष्ट अफसरों के बचाव के लिए सरकार ही अपने वकीलों को ढाल बनाएगी।